सोमवार, 15 सितंबर 2008

और गांधीजी को अंग्रेजी भूल गई ...


और गांधीजी को अंग्रेजी भूल गई .... आप सोच रहे होंगे की दक्षिद अफ्रीका में वकालत करने वाले व्यक्ति को अंग्रेजी कैसे भूल सकती है ओ भी महात्मा गाँधी जैसे व्यक्तित्व को लेकिन हम आपको बता दे की अगर कोई जानबूझ कर अंग्रेजी भुलवाना चाहे तो क्या कहेंगे आप जी हाँ महात्मा गाँधी ने भारत के आजाद होने के बाद एक अंग्रेज पत्रकार द्वारा अंग्रेजी में प्रश्न पूछे जाने पर जबाब देने से इंकार कर दिया और उसे हिन्दी सिखने की नसीहत दे डाली गांधीजी ने अपना आदमी भेज कर कहा की जा कर उनसे कह दो की गाँधी को अंग्रेजी भूल गई है

चंदामामा के बहाने


चंदा मामा दूर के ....चंदा मामा दूर के पुए पकाए गुड के ,अपने खाए थाली में ,बाबु के दे प्याली में ...ये ओ पंक्तिया है जिन्हें बचपन में सुनकर माँ या तो खाना खिलाती थी या फिर सुलातीं थी कितने सुनहरे दिन थे ओ ,उनको याद करने मात्र से ही मन पुलकित हो जाता है ,आभा मंडल पर एक आजीब सी मुस्कान तैरने लगती है सुनहरे पल झरने के पानी की बहती तेज़ धारा की तरह गतिमान होते है ठीक एसे ही न जाने कब बचपन गुजरा और कब हम इस भग दौड़ भरी जिंदगी के हिस्सा हो गए पता ही नही चला पहले घर छुटा फिर शहर,फिर जिला ,मंडल और अब पिछले चार सालों से प्रदेश से भी दुरी हो गई है खैर ,आप सोच रहे होंगे की आज आचानक बचपन की याद क्यों....?कल हिन्दी दिवस के अवसर पर बल पत्रिका चंदामामा के पूर्व संपादक डॉक्टर बालशौरी रेड्डी जी से मुलाकात हो गई रेड्डी साहब पुराने आदमी इतने पुराने की ओ महात्मा गाँधी से ले कर इंदिरा गाँधी ,राजीव गाँधी ,सोनिया गाँधी सब के साथ उनकी सवार्निम यादे जुड़ी है रेड्डी साहब ने जब पत्रिका का दायित्व लिया था उस समय चंदामामा की प्रसार संख्या ७०००० थी लेकिन जब वे पत्रिका छड तो उस समय यह आंकडा १६०००० पहुँच चुका था पत्रिका कभी लोकप्रिय हो गई थी आज उनसे बात करने के दौरान ,उनकी बातें सुन कर बचपन जीवंत हो गया उनसे बात करते समय उनके द्वारा सुने गई कथाओ ने मुझे आपने पुराने आतीत में धकेल दिया जहा मई आपनी दादी और दादाजी से बैठ कर कहानिया सुना करता था मुझे याद आने लगे ओ बिताये पल ,मुझे याद आने लगे मेरे दादा जी की ओ प्यारी थपकी जिसे देकर ओ मुझे अक्सर सुलाया करते थे थोडी देर के लिए ही सही रेड्डी साहब की वजह और हिन्दी दिवस की वजह से मुझे आतीत की उन स्वर्णिम यादों में जाने का मौका मिला जो शायद अब यादें ही बन कर रह जाएँगी इसलिए धन्यवाद है रेड्डी साहब को और हिन्दी दिवस को